ट्रॉमा केयर पर राष्ट्रीय कानून की आवश्यकता को प्रकाशित करता अंतर्राष्ट्रीय वैधानिक अध्ययन
◆ यह अध्ययन आपातकालीन चिकित्सा देखभाल के अधिकार में ट्रॉमा केयर पर विशेष ध्यान देने की स्थापना का आह्वान करता है
शब्दवाणी समाचार, वीरवार 19 अक्टूबर 2023, सम्पादकीय व्हाट्सप्प 8803818844, नई दिल्ली। भारत में 2021 में लगभग चार लाख "आकस्मिक मौतें" लेखांकित हुई, जिनमें से अधिकांश सड़क दुर्घटनाओं के कारण हुई थी। केवल 2017 और 2021 के बीच, भारत ने सड़क दुर्घटनाओं में सात लाख से अधिक लोगों को खो दिया। गृह मंत्रालय की 2020 की एक रिपोर्ट ने यह पाया कि सु-व्यवस्थित ट्रॉमा केयर प्रणालियाँ ऐसी मौतों को लगभग 20-25 प्रतिशत और गंभीर विकलांगताओं को 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा कम करने में मदद करती हैं। हालांकि, वास्तविक तौर पर यह सुविधाएँ अभी भी पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के तौर पर, गृह मंत्रालय द्वारा जारी भारत के जन्म-मृत्यु के आंकड़ों में यह पाया गया कि वर्ष 2020 के दौरान दर्ज की गई कुल मौतों में लगभग 45 प्रतिशत, यानी 36.5 लाख लोगों को मौत से पहले किसी प्रकार की चिकित्सक सहायता नहीं प्राप्त हुई। नीति आयोग और एम्स दिल्ली द्वारा 2021 में प्रकाशित "Emergency and Injury Care at District Hospitals in India" रिपोर्ट के अनुसार, समग्र अनुशंसित बायोमेडिकल और क्रिटिकल केयर उपकरणों की उपलब्धता के अनुपालन में बड़े पैमाने पर, लगभग 45-60 प्रतिशत, की कमी पाई गई। रिपोर्ट से यह भी पता चला कि सभी अध्ययनित जिला अस्पतालों में आपातकालीन विभागों के लिए अनुशंसित सभी आवश्यक आपातकालीन दवाएं मौज़ूद नहीं थीं।
भारत में उपलब्ध आपातकालीन चिकित्सा देखभाल के संबंध में लिखित क़ानून और उपलब्ध प्रणालियों का पता लगाने के लिए और यह जानने के लिए की दोनों में क्या अंतर है— सेवलाइफ फाउंडेशन ने Thomson Reuters Foundation के TrustLaw Network के सहयोग से इस सन्दर्भ में एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन किया। यह अध्ययन आपातकालीन चिकित्सा देखभाल के लिए वैधानिक अधिकारों की गारंटी देने वाले कानूनों और अध्ययन किए गए देशों में अनुरूप प्रणालियों की उपलब्धता के आधार पर किया गया है। चयनित देशों में विकासशील और विकसित देश — अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैंड और वेल्स, मलेशिया, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, जापान, पाकिस्तान और दक्षिण अफ्रीका — शामिल हैं। इस रिपोर्ट में भारत में ऐसी कानूनी गारंटी और जमीनी स्तर की प्रणालियों की व्यापकता का भी अध्ययन शामिल किया गया है। इस अध्ययन में आपातकालीन चिकित्सा देखभाल के पांच अलग-अलग पहलुओं का विश्लेषण किया गया है:
1. आपातकालीन चिकित्सा देखभाल के लिए गारंटीकृत/वैधानिक अधिकार की उपलब्धता
2. आपातकालीन चिकित्सा देखभाल और उनकी उपलब्धता के अधिकार से जुड़े कानूनों/ दिशानिर्देशों के अस्तित्व, और उन्हें लागू करने के तरीके
3. राज्य, बीमा और निजी तौर पर प्राप्त फंडिंग सहित आपातकालीन चिकित्सा देखभाल फंडिंग की स्थिति
4. अस्पतालों/ट्रॉमा केयर सेंटरों में रेफरल को विनियमित करने के लिए राज्य स्तर पर तंत्र और स्थापित प्रोटोकॉल
5. राजमार्गों पर ट्रॉमा इंजरी प्रबंधन के लिए विशिष्ट दिशानिर्देश/विनियम
रिपोर्ट में सेवलाइफ फाउंडेशन ने TrustLaw Network की सहायता से Dechert LLP, Latham & Watkins, White & Case और Norton Rose Fulbright सहित चार अंतरराष्ट्रीय लॉ फर्म्स के साथ कानूनी तुलनात्मक शोध किया। इस रिपोर्ट के अनुसार, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे उच्च आय वाले देशों में आपातकालीन चिकित्सा देखभाल के अधिकार की गारंटी देने वाले लिखित क़ानून केवल आंशिक हैं। परंतु उनकी स्थापित ट्रामा केयर प्रणालियाँ यह सुनिश्चित करती है कि नागरिकों को आपातकालीन चिकित्सा मुहैया हो। अमेरिका और इंग्लैंड और वेल्स ने भी अपने नागरिकों के लिए सार्वत्रिक ट्रामा केयर की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए अधिनियम बनाये हैं। इस रिपोर्ट में शामिल अधिकांश विकासशील देशों ने अपने वैधानिक प्रावधानों में ट्रामा केयर को शामिल किया है और साथ ही साथ उन प्रणालियों को भी सशक्त कर रहे है। भारत में आपातकालीन चिकित्सा देखभाल को एक अधिकार के रूप में गारंटी देने वाला क़ानून अभी नहीं है, लेकिन अदालत के फैसलों ने आपातकालीन चिकित्सा देखभाल को Right to Life के एक अभिन्न अंग की तरह देखा है। हालांकि, उक्त फैसले ना तो आपातकालीन चिकित्सा देखभाल के लिए बुनियादी मानकों को निर्धारित करते हैं और ना ही ऐसे अधिकारों के उल्लंघन पर दंड की रूपरेखा प्रदान करते हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा परमानन्द कटारा बनाम. भारत सरकार और पश्चिम बंग खेत मजदूर समिति बनाम. पश्चिम बंगाल राज्य जैसे ऐतिहासिक निर्णयों के बावजूद, आपातकालीन चिकित्सा देखभाल को अभी तक पूरे देश में मानकीकृत नहीं किया गया है।
नीति आयोग और एम्स की रिपोर्ट चिंताजनक आंकड़ों के साथ आपातकालीन चिकित्सा देखभाल की स्थिति पर प्रकाश डालती है, जैसे कि — देश में 98.5 प्रतिशत एम्बुलेंस केवल मृतकों को ही लाने ले जाने के प्रयोग में आ पाती है; 90% एंबुलेंस ऑक्सीजन समेत किसी भी उपकरण के बिना काम कर रहीं हैं; 95 प्रतिशत एम्बुलेंसों में अप्रशिक्षित कर्मचारी मौज़ूद होते हैं; अधिकांश इमर्जेन्सी डिपार्टमेंट (ईडी) के डॉक्टरों के पास ट्रामा केयर में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं है और आपातकालीन चिकित्सा देखभाल में देरी के कारण 30 प्रतिशत मृतुयें दर्ज होती है। रिपोर्ट के संदर्भ में बात करते हुए, पीयूष तिवारी, सीईओ और संस्थापक, सेवलाइफ फाउंडेशन ने कहा, “ट्रामा केयर हमारे जीने के मौलिक अधिकार को संरक्षित करने में मदद करता है लेकिन ऐसी देखभाल के वितरण के लिए आपस में जुड़ी और मानकीकृत प्रणालियों की आवश्यकता है। ऐसे मानकों को "राइट टू ट्रॉमा केयर" कानून के बिना भी स्थापित करना मुमकिन हो सकता है, लेकिन एक स्पष्ट "राइट टू ट्रॉमा केयर" कानून यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसे मानकों और प्रणालियों को स्थापित करने के लिए उचित प्राधिकरण, जवाबदेही और दीर्घकालिक ढांचा मौजूद हो। “शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009” इस बात का एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे एक कानून उस से जुड़ी संबंधित प्रणालियों के निर्माण को सुनिश्चित करता है। यह रिपोर्ट उच्च, निम्न और मध्यम आय वाले देशों द्वारा की गई ऐसी कार्रवाइयों का प्रलेखन करती है। हमें उम्मीद है कि यह सभी हितधारकों के बीच एक बहुत जरूरी चर्चा को प्रेरित करेगा, जिसमें जीवन रक्षा सभी चर्चाओं का केंद्र रहेगा।
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